
वाराणसी/नई दिल्ली (एक्सपर्ट मीडिया न्यूज)। गंगा की गोद में बसी प्राचीन नगरी वाराणसी में अब देश का पहला अर्बन पब्लिक ट्रांसपोर्ट रोपवे यहां लॉन्च होने जा रहा है, जो न सिर्फ शहर की ट्रैफिक जाम की समस्या को हल करने का दावा करता है, बल्कि पर्यटकों और तीर्थयात्रियों के लिए एक अनोखा अनुभव भी पेश करेगा। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या यह वाकई एक क्रांतिकारी कदम है या फिर 807 करोड़ रुपये के खर्चे में उड़ान भरने का एक महंगा तमाशा? आइए, इस रोपवे की पूरी कहानी को विस्तार से समझते हैं।
यह प्रोजेक्ट मार्च 2023 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा शिलान्यासित किया गया था। शुरू में अनुमानित लागत 650 करोड़ रुपये बताई गई थी, लेकिन अब यह 807 करोड़ रुपये तक पहुंच चुकी है। लंबाई महज 3.75 किलोमीटर की है, जो वाराणसी कैंट रेलवे स्टेशन से गोदौलिया चौक तक फैला हुआ है। रास्ते में पांच प्रमुख स्टेशन हैं: वाराणसी कैंट, काशी विद्यापीठ (भारतमाला मंदिर), रथ यात्रा, गिरजा घर और गोदौलिया।
यह रोपवे स्विट्जरलैंड से आयातित केबल कारों पर आधारित है, जो यूवी किरणों से सुरक्षा और गर्मी को कम करने वाली रिफ्लेक्टिव सतहों से लैस हैं। प्रत्येक केबिन में 10 यात्री समा सकते हैं और कुल 153 गोंडोलास होंगे। प्रति घंटे 3,000 यात्रियों को एक दिशा में ले जाने की क्षमता के साथ यह रोजाना 96,000 यात्रियों को सेवा दे सकेगा। ट्रायल रन अगस्त 2025 में शुरू हो चुका है और तीन महीने तक चलेगा, जिसके बाद यह पूरी तरह से चालू हो जाएगा।
प्रोजेक्ट को नेशनल हाईवे लॉजिस्टिक्स मैनेजमेंट लिमिटेड (NHLML) द्वारा निष्पादित किया जा रहा है। यह दुनिया का तीसरा पब्लिक ट्रांसपोर्ट रोपवे होगा, जो बोलिविया के ‘मि टेलेफेरिको’ और मैक्सिको सिटी के ‘मेक्सिकेबल’ के बाद आता है। भारत में यह पहला शहरी रोपवे है, जो ‘पर्वतमाला’ स्कीम का हिस्सा है। इस स्कीम के तहत 2030 तक 200 रोपवे प्रोजेक्ट बनाए जाएंगे, जिनकी कुल लंबाई 1,200 किमी से अधिक होगी।
वाराणसी की तंग गलियां और घनी आबादी हमेशा से ट्रांसपोर्ट की बड़ी समस्या रही हैं। यहां मेट्रो प्रोजेक्ट की कोशिशें 2014 से चल रही थीं, लेकिन भौगोलिक चुनौतियों के कारण यह आंतरिक शहर में संभव नहीं हो सका। अब रोपवे इस कमी को पूरा कर रहा है। ऊंचाई 45-50 मीटर तक होने से यह सड़क के गड्ढों और जाम से बचा सकता है। यात्रा का समय महज 15-20 मिनट में पूरा हो जाएगा, जो सड़क मार्ग से दोगुना तेज है।
पर्यटकों के लिए यह एक बड़ा आकर्षण बनेगा। गंगा नदी, काशी विश्वनाथ मंदिर और शहर के ऐतिहासिक दृश्यों का हवाई नजारा लेते हुए यात्रा करना रोमांचक होगा। विकलांगों और बुजुर्गों के लिए डिजाइन किए गए केबिन इसे समावेशी बनाते हैं। पर्यावरण के लिहाज से भी यह बेहतर है, क्योंकि यह इलेक्ट्रिक है और प्रदूषण कम करेगा। दैनिक 16 घंटे संचालन से स्थानीय अर्थव्यवस्था को भी बूस्ट मिलेगा।
लेकिन यह प्रोजेक्ट विवादों से अछूता नहीं है। 3.75 किमी की दूरी के लिए 807 करोड़ का खर्च कई सवाल खड़े करता है। यानी प्रति किलोमीटर लगभग 215 करोड़ रुपये! आलोचक इसे ‘सबसे महंगा तरीका’ बता रहे हैं, जो सड़क पर चलना गरीबों के लिए छोड़कर हवा में उड़ना VIP जनता के लिए आरक्षित कर देगा। टिकट कीमत अभी तय नहीं है, लेकिन अनुमान है कि यह सामान्य बस या ऑटो से महंगी होगी। क्या यह आम आदमी की पहुंच में होगा या सिर्फ अमीर पर्यटकों का सुख?
कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि लागत में वृद्धि आयातित सामग्री और तकनीकी चुनौतियों के कारण हुई है। फिर भी सवाल बरकरार है: क्या इतने पैसे से सड़कों की मरम्मत या बेहतर बस सेवा न दी जा सकती थी? सोशल मीडिया पर मीम्स और व्यंग्य की बाढ़ आ गई है- ‘ज़मीन पर गड्ढों से बचने का सबसे महँगा तरीका!’
वहीं सरकार इसे ‘आस्था और तकनीक का संगम’ बता रही है कि वाराणसी रोपवे निश्चित रूप से एक मील का पत्थर है, जो भारत को रोपवे क्रांति की ओर ले जा सकता है। लेकिन इसकी सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि यह कितना सुलभ और किफायती साबित होता है। अगर ट्रायल रन सफल रहा तो यह शहर की ट्रांसपोर्ट सिस्टम को बदल सकता है। अन्यथा यह सिर्फ एक महंगा प्रयोग बनकर रह जाएगा।