चुनाव डेस्कझारखंडदेशनई दिल्लीफीचर्डरांचीराजनीति

सियासी पटरी पर आजसू का डगमगाता कदम और जेएलकेएम की चुनौती  

AJSU faltering political footsteps and the challenge posed by the JLKMझारखंड की सियासत में आजसू की कहानी अभी खत्म नहीं हुई है। यह एक ऐसा अध्याय है, जहां हार के बाद भी संघर्ष की चिंगारी सुलग रही है। सुदेश महतो की अगली चाल क्या होगी। गठबंधन की तलाश या स्वतंत्र आंदोलन? समय बताएगा। फिलहाल राजनीति के इस खेल में कोई भी ‘गेम ओवर’ नहीं कह सकता…

रांची (एक्सपर्ट मीडिया न्यूज)। झारखंड की राजनीति में कभी ‘किंगमेकर’ की भूमिका निभाने वाली ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन (आजसू) पार्टी आज हाशिए पर सिमटती नजर आ रही है। छात्र आंदोलन की आग से जन्मी यह पार्टी, जो कभी गठबंधनों की धुरी बनी, अब अपनी ही जड़ों पर सवालों के कांटे चुभते महसूस कर रही है।

आजसू सुप्रीमो सुदेश महतो की विधानसभा सीट पर हार, कुरमी-कुड़मी समुदाय की एसटी मांग पर अस्पष्ट रुख और उभरते क्षेत्रीय दलों की चुनौती- ये सब मिलकर आजसू को एक बड़े सवाल के घेरे में ला खड़ा कर दिया है। क्या यह पार्टी उठने की जद्दोजहद कर रही है या फिर राजनीतिक कैनवास पर उसकी तस्वीर धुंधली हो चुकी है?

राजनीति में कोई छोटा-बड़ा या कमजोर नहीं होता, लेकिन समय की धारा सबको बहा ले जाती है। 2024 के विधानसभा चुनावों में आजसू को करारी हार का सामना करना पड़ा। सिल्ली से खुद सुदेश महतो चुनावी दंगल में धूल चाट गए और पार्टी के खाते में महज दो विधायक ही बचे। लोकसभा में तो एक भी सांसद नहीं।

फिलहाल यह वह पार्टी नहीं लगती, जो कभी तीन सांसदों और छह से ज्यादा विधायकों के साथ सरकारें गिराने-बनाने में माहिर थी। लेकिन 2025 में भी आजसू ने हार मानने से इनकार किया है। जून में ‘बलिदान दिवस’ के रूप में मनाए गए स्थापना दिवस पर सुदेश महतो ने झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) और कांग्रेस पर भ्रष्टाचार व जमीन लूट के गंभीर आरोप लगाए।

उन्होंने कहा कि झारखंड के लिए आजसू ने संघर्ष किया, बाकी ने सौदेबाजी। यह बयान न सिर्फ विपक्षी दलों को निशाने पर लेता है, बल्कि आजसू की पुरानी ‘जनपक्षधर’ छवि को फिर से जगाने की कोशिश भी करता है।

आजसू की जड़ें 1980 के दशक के अंत में छात्र आंदोलनों में हैं। 22 जून 1986 को ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन की तर्ज पर स्थापित यह पार्टी 1991 से चुनावी मैदान में उतरी। शुरूआती दौर में विधानसभा से लेकर लोकसभा तक इसने दमदार प्रदर्शन किया। गठबंधन सरकारों में सत्ता साझेदार बनकर कई बार निर्णायक भूमिका निभाई।

याद कीजिए, जब आजसू के पास सांसदों और विधायकों की फौज थी, तो झारखंड की राजनीति में इसकी ‘पकड़’ किसी को चुनौती नहीं दे पाती। लेकिन वक्त ने करवट ली। जनमुद्दों से दूरी, नेतृत्व की रणनीतिक असमंजस और क्षेत्रीय दलों का उभार इन सबने पार्टी का आधार सिकुड़ता चला गया।

2025 की हकीकत और भी कड़वी है। जनवरी में पार्टी को एक और झटका लगा, जब उनके कद्दावर सांसद चंद्रप्रकाश चौधरी के भाजपा में शामिल होने की खबरें उड़ीं। दिसंबर 2024 के चुनाव परिणामों पर सुदेश महतो ने कहा था कि परिणाम उम्मीदों के विपरीत हैं, हम आकलन कर रहे हैं। लेकिन आकलन के बाद भी पार्टी की ताकत सीमित ही रही।

जुलाई में बोकारो में आयोजित मिलन समारोह में सैकड़ों लोग आजसू का दामन थामने पहुंचे और डॉ. लंबोदर महतो ने घोषणा की कि पार्टी 32,000 से ज्यादा गांवों में अपनी पकड़ मजबूत करेगी। सदस्यता अभियान चलाकर सक्रिय सदस्यों की संख्या बढ़ाने का प्लान है। सिमडेगा में जून की बैठक में आंदोलनकारियों की उपेक्षा का मुद्दा उठा, जहां डॉ. देवशरण भगत ने राज्य सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए। ये कदम दिखाते हैं कि आजसू अभी भी मैदान में है, लेकिन चुनौतियां पहाड़ जैसी हैं।

सबसे ज्यादा चर्चा आजसू के अस्पष्ट स्टैंड पर हो रही है। कुरमी-कुड़मी समुदाय को अनुसूचित जनजाति (एसटी) में शामिल करने की मांग। यह मुद्दा पार्टी की पहचान से जुड़ा है, क्योंकि सुदेश महतो खुद इस समुदाय से हैं। लेकिन जब वे सत्ता में थे तो मुख्यमंत्री, उपमुख्यमंत्री तक तब यह मांग क्यों दबकर रह गई?

जयराम महतो का झारखंड लोकतांत्रिक क्रांतिकारी मोर्चा (जेएलकेएम) इसी सवाल पर उभरा है। विधायक बने जयराम की आक्रामक राजनीति और सोशल मीडिया पर तीखी टिप्पणियां आजसू को पीछे धकेल रही हैं। वे कहते हैं कि सुदेश महतो के साथ चार-पांच विधायक, सांसद और मंत्री रहते हुए कुरमी समाज को एसटी क्यों नहीं मिला? अब आंदोलन की चर्चा होने पर वे हमारे साथ खड़े हैं, लेकिन राजनीतिक समर्थन कभी नहीं देंगे।

सोशल मीडिया पर यह बहस और गरम है। हाल ही में एक पोस्ट में कहा गया कि सबसे ज्यादा कुड़मी विरोधी पैदा करने का खिताब आजसू को मिलना चाहिए। सुप्रीमो की दोहरी नीति साफ दिख रही है। पूर्व सलाहकार हिमांशु कुमार जैसे लोग पार्टी की आलोचना कर रहे हैं, जो संगठन की छवि को धुंधला कर रहा है।

दूसरी ओर आजसू समर्थक तर्क देते हैं कि 2019 में बड़कागांव से लोकनाथ महतो को टिकट न देकर परिवारवाद ने पार्टी को नुकसान पहुंचाया। आदिवासी विधायकों- कमल किशोर भगत और विकास सिंह मुंडा के जेएमएम में चले जाने का जिक्र भी उठता है। जयराम महतो की तेवरदार उपस्थिति ने आजसू को आईना दिखा दिया है। सामाजिक आंदोलन और राजनीति में फर्क समझना होगा।

लेकिन सवाल वही है कि क्या ये प्रयास पर्याप्त हैं? 2025 के आखिर तक लोकसभा उपचुनाव या स्थानीय निकाय चुनाव आ सकते हैं, जहां आजसू को अपनी साख साबित करनी होगी। विशेषज्ञों का मानना है कि अगर पार्टी पुराने सामाजिक आधार कुरमी युवाओं और छात्रों पर टिकेगी और एसटी मांग पर स्पष्ट एजेंडा बनाएगी तो वापसी संभव है। वरना, जयराम जैसे नए चेहरे उस स्पेस को भर लेंगे।

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button
Ashoka Pillar of Vaishali, A symbol of Bihar’s glory Hot pose of actress Kangana Ranaut The beautiful historical Golghar of Patna These 5 science museums must be shown to children once