“दिलचस्प है कि जिस बिहार में पहली शती ईस्वी में ही शौचालयों की व्यवस्था थी, वो राज्य घर-घर शौचालय बन जाने की लड़ाई लड़ रहा है। साल 2019 के सितंबर माह में केन्द्रीय आवास और शहरी कार्य मंत्रालय के सचिव दुर्गाशंकर मिश्र ने एक ट्वीट करके बिहार सरकार को शहरी क्षेत्र में खुले में शौच से मुक्त होने पर बधाई दी थी। लेकिन अगर ज़मीनी हालात देखें तो सिर्फ़ पटना के 4054 सरकारी स्कूल में शौचालय नहीं है जिसमें से 557 ऐसे स्कूल हैं जो सिर्फ़ छात्राओं के लिए हैं….”
✍बीबीसी हिंदी पर सीटू तिवारी की रिपोर्ट
एक्सपर्ट मीडिया न्यूज डेस्क. बीती जनवरी में बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर में सैकड़ों लोगों ने ब्लॉक ऑफिस में लोटा लेकर प्रदर्शन किया था। उनकी नाराज़गी की वजह थी कि सरकार ने उनसे शौचालय बनवा लिया लेकिन उसके लिए मिलने वाली प्रोत्साहन राशि का भुगतान अब तक नहीं किया है।
जिस जगह ये प्रदर्शन हो रहा था उससे तक़रीबन 60 किलोमीटर दूर वैशाली संग्रहालय है, जो संग्रहालय हमें इतिहास के उस वक़्त से रूबरू कराता है जब भारत में शौचालय की अवधारणा आकार ले रही थी। वैशाली संग्रहालय में एक टॉयलेट पैन यानी शौचालय की सीट रखी हुई है जिसका काल पहली से दूसरी सदी का है।
टेराकोटा का ये टॉयलेट पैन तीन हिस्सों में बंटा/टूटा हुआ मिला है। इसका अधिकतम व्यास 88 सेंटीमीटर और मोटाई 7 सेंटीमीटर है। टॉयलेट पैन में दो छेद हैं। इसमें से एक छेद यूरिन (व्यास 3 सेंटीमीटर) और दूसरा छेद मानव मल (व्यास 18 सेंटीमीटर) के लिए है।
पांव रखने की जगह या फ़ुटरेस्ट की लंबाई 24 सेंटीमीटर और चौड़ाई 13 सेंटीमीटर है। आज के इंडियन टॉयलेट पैन की तरह ही उसमें भी बैठकर शौच करने की व्यवस्था थी। अनुमान है कि इस टॉयलेट पैन के नीचे रिंग वेल होगा और उसी के ज़रिए पानी, मल आदि की निकासी होती होगी।
पैन को डिज़ाइन भी इस तरह से किया गया है कि उसमें से पानी बाहर ना निकले और निर्धारित स्थान पर ही उसकी निकासी हो। रिंग वेल एक तरह का कुआं होता है जिसमें आप एक ही आकार के सांचे को एक के ऊपर एक रखते जाते हैं।
टॉयलेट पैन के नीचे लिखी जानकारी के मुताबिक ये टॉयलेट पैन कोल्हुआ (वैशाली) में उत्खनन के दौरान एक स्वास्तिक आकार की मोनैस्ट्री से मिला है।
इस टॉयलेट पैन के आकार के आधार पर ये अनुमान लगाया जाता है कि मोनैस्ट्री (संघाराम) भिक्षुणियों के लिए होगी। बौद्ध साहित्य के मुताबिक़, बुद्ध ने अपनी मौसी महाप्रजापति गौतमी को उनके 500 सहयोगियों के साथ पहली बार बौद्ध संघ में वैशाली में प्रवेश दिया था।
बुद्ध ने अपने शिष्य आनंद से काफ़ी वाद-विवाद किया और फिर अपनी इच्छा के विरुद्ध प्रवेश दिया। बाद में राजनर्तकी आम्रपाली को भी संघ में प्रवेश दिया गया।
‘ए रेयर टैराकोटा टॉयलेट पैन फ्रॉम वैशाली’ विषय पर रिसर्च पेपर लिखने वाले और वैशाली संग्रहालय के सहायक अधीक्षण पुरातत्वविद जे.के. तिवारी बताते हैं, “अगर आप भिक्षुणियों की मोनैस्ट्री देखें तो उसमें बारह कमरे हैं। इनसे जुड़ा हुआ बरामदा है और दक्षिणी हिस्से में शौचालय है।”
“इसी तरह भिक्षु और भिक्षुणियों की मोनैस्ट्री के पास नहाने का जो टैक है उसमें घाट इस तरह से बनाए गए हैं ताकि स्त्री और पुरुष दोनों ही एक-दूसरे के आमने-सामने ना पड़ें। यानी ऐतिहासिक काल में शौचालयों का प्राचीनतम साक्ष्य वैशाली में है और अगर हम अर्बनाइज़ेशन ऑफ बिहार देखें तो इसमें ये कुछ महत्वपूर्ण अध्ययन और
चरण है।”
बौद्ध धर्म का ग्रंथ है त्रिपिटक जो पाली भाषा में लिखा है। इसमें बुद्ध के उपदेश लिखे हैं जो तीन पिटकों में बंटे हुए हैं – विनय पिटक, सुत्त पिटक और अभिधम्म पिटक।
विनय पिटक में भिक्षु-भिक्षुणियों के आचार विचार संबंधी विषयों का उल्लेख है यानी जीवन जीने के नियम या अनुशासन। प्रसिद्ध साहित्यकार राहुल सांकृत्यायन ने विनय पिटक का अनुवाद हिन्दी में किया है।
महाबोधि सभा सारनाथ (बनारस) द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक की पृष्ठ संख्या 447 और 448 में ‘पेशाबखाना, पाखाना, वृक्षारोपण, बर्तन, चारपाई आदि सामान’ नाम से एक चैप्टर है। दो लोगों के बीच संवाद की भाषा में लिखे गए इस चैप्टर में पेशाब और पाखाना में भिक्षुओं की मुश्किलों का ज़िक्र किया गया है।
भिक्षुओं को पहले एक जगह पेशाब करने, फिर पेशाबदान में पेशाब करने और उसके बाद पेशाबदान को ईंट, पत्थर या लकड़ी की चहारदीवारी से घेरने की अनुमति दी गई है।
इसी तरह पाखाना के लिए ईंट, पत्थर या लकड़ी से घेरकर पाखाना घर बनाने की अनुमति मिली है। इसके अलावा पाखाना में बांही (यानी सपोर्ट के लिए रेलिंग लगाने की), फ़र्श बनाकर बीच में छेद रख पाखाना होने की, पखाने के पायदान की, साथ में पेशाब की नाली बनाने की अनुमति मिली है।
जेके तिवारी बताते हैं, “शौचालयों को विनय पिटक में ‘वच्चकुटी’ कहा गया है। ‘वच्च’ पाली शब्द है जिसका मतलब संडास समझा जा सकता है। इसमें भिक्षु और भिक्षुणियों के लिए अलग शौचालयों के प्रावधान और एक-दूसरे के शौचालयों में जाने के निषेध का ज़िक्र है।
इसके अलावा शौचालय जाने से पहले खांसने की आवाज़ करने ताकि अगर कोई शौचालय के अंदर है तो उसका पता लग सके, चीवर (बौद्ध भिक्षुओं का वस्त्र) को शौचालय के बाहर लगे हैंगर में टांगने का ज़िक्र है।”
भारत में शौचालय का इतिहास 3000 साल पुराना है। सिन्धु घाटी सभ्यता में इसके साक्ष्य लोथल में मिलते है। लेकिन इसके बाद चार्कोलिथिक काल मे शौचालय होने के कोई साक्ष्य नहीं मिलते हैं। इसके बाद आरंभिक ऐतिहासिक काल में शौचालयों के साक्ष्य फिर से मिलते हैं।
ऐतिहासिक काल को तीन कालों में बांटा गया है – नार्दन ब्लैक पॉलिश्ड (एनबीपी), शुंग और कुषाण काल। एनबीपी पीरियड (800 से 200 बीसी) में रिंग वेल के साक्ष्य राजघाट उत्खनन में मिलते हैं। अनुमान है कि इन रिंग वेल्स पर शौचालय बने होंगे। इसी पीरियड में शहर और ‘महाजनपद’ जैसी राजनीतिक इकाई अस्तित्व में आ रही थी।
लेकिन शौचालय कैसे रहे होंगे उसका भौतिक सुबूत हमें कुषाण काल (पहली से दूसरी शती ईस्वी) में मिलता है। वैशाली संग्रहालय में रखा टॉयलेट पैन कुषाण काल का है।
बाद में शौचालयों की परंपरा ख़त्म होती गई और आधुनिक भारत में एक ऐसा भी वक़्त आया जब घर में शौचालय समृद्धि या वैभव की पहचान बन गई।
कृष्ण कुमार मंडल भागलपुर के तिलका मांझी विश्वविद्यालय में इतिहास पढ़ाते हैं। हॉस्पिटल इन बुद्धिस्ट ट्रेडिशन (बौद्ध परंपरा में अस्पताल) विषय पर उनका रिसर्च पेपर है।
बीबीसी से बातचीत में वो बताते हैं, “बुद्धिस्ट मोनैस्ट्री में साफ़-सुथरा रहने या सफ़ाई की तरफ़ ज़्यादा सचेत रहने की परंपरा थी। यही वजह है कि बुद्धिस्ट लिटरेचर में दो बड़े अस्पताल राजगीर और वैशाली में होने का ज़िक्र मिलता है।
अगर आप देखें तो मोनैस्ट्रीज के जो स्ट्रक्चर हमें खुदाई के बाद मिले हैं उसमें बहुत सारे सेल दिखते है। जिसको देखकर इन मोनैस्ट्रीज में शौचालय की व्यवस्था को ख़ारिज नहीं किया जा सकता।” विनय पिटक में भिक्षु-भिक्षुणियों के आचार विचार संबंधी विषयों का उल्लेख है यानी जीवन जीने के नियम या अनुशासन।