“दिवंगत रामविलास पासवान के सांसद पुत्र चिराग़ पासवान के व्यक्तित्व की एक बड़ी कमी है कि वह राजनीतिक रूप से सक्रिय नहीं रहते हैं। वह अपने कार्यकर्ताओं से परिचित नहीं हैं और अपने क्षेत्र में बहुत कम ही आते हैं। यहां तक कि पटना तक उनका आना दुर्लभ है। अब उनक राजनीतिक भविष्य एक हद तक नरेंद्र मोदी और अमित शाह के हाथ में है। देखना होगा कि वे चिराग़ के साथ कैसा व्यवहार करते हैं। ऐसे राजद की ओर जाकर चिराग सबके समीकरण बिगाड़ने से भी इंकार नहीं किया जा सकता….
एक्सपर्ट मीडिया न्यूज नेटवर्क डेस्क। लोक जनशक्ति पार्टी के सांसद पशुपति नाथ पारस ने अपने भतीजे चिराग़ पासवान के ख़िलाफ़ बग़ावत का बिगुल फूंक दिया। पारस का दावा है कि पार्टी के छह में से पांच सांसद उन्हें संसदीय दल के नेता के तौर पर देखना चाहते हैं।
उधर चिराग़ पासवान बागी हुए चाचा को मनाने उनके घर पहुंचे, लेकिन उन्हें अंदर दाखिल होने के लिए इंतज़ार करना पड़ा।चिराग का अब तक इस बारे में कोई बयान नहीं आया है। आरजेडी ने इस ‘तख़्तापलट’ के लिए नीतीश कुमार को ज़िम्मेदार ठहराया है।
चिराग़ पूर्व केंद्रीय मंत्री राम विलास पासवान के बेटे हैं और पशुपति नाथ पारस राम विलास के छोटे भाई हैं। इस ‘तख़्तापलट’ को लेकर तमाम तरह के क़यास लगाए जा रहे हैं लेकिन अब तक जो कुछ स्पष्ट है कि चिराग़ पासवान की पार्टी पर पकड़ कमज़ोर हो गई है और वो डैमेज कंट्रोल की कोशिश में जुटे हैं।
इस राजनीतिक तख़्ता पलट में चिराग़ पासवान के चचेरे भाई और समस्तीपुर के सांसद प्रिंस राज, खगड़िया से सांसद महबूब अली कैसर, वैशाली से सांसद वीणा देवी, और नवादा से सांसद चंदन सिंह ने पशुपति नाथ पारस का समर्थन किया है।
सांसदों ने औपचारिक रूप से अध्यक्ष ओम बिड़ला को पत्र लिखकर लोकसभा में दल का नेता पशुपति नाथ पारस को बनाए जाने की अपील की है। इसके साथ ही चिराग़ पासवान अपने पिता रामविलास पासवान की पार्टी में अलग–थलग पड़ गए हैं।
बिहार की राजनीति में सोमवार सुबह जिस राजनीतिक घटनाक्रम का एक अध्याय पूरा हुआ है, उसकी शुरुआत बिहार विधानसभा चुनाव से हुई।
चिराग़ के चाचा पशुपति नाथ पारस ने पत्रकारों से कहा, “कुछ असामाजिक तत्वों ने हमारी पार्टी में सेंध लगाई और उसने 99 फीसदी कार्यकर्ताओं की भावना की अनदेखी करते हुए गठबंधन को तोड़ दिया। और ये गठबंधन एक दूसरे ही ढंग से तोड़ा गया। किसी से हम दोस्ती करेंगे, किसी से प्यार करेंगे, किसी से नफरत करेंगे”।
उन्होंने आगे कहा कि “इससे बिहार में एनडीए गठबंधन कमजोर हुआ। और लोक जनशक्ति पार्टी बिलकुल समाप्ति के कगार पर पहुंच गयी। पिछले छह महीने से हमारी पार्टी के पाँचों सांसदों की इच्छा थी कि पार्टी को बचा लिया जाए। मैंने पार्टी को तोड़ा नहीं, बचाया है।”
पारस अपने कदम को सही ठहरा रहे हैं लेकिन स्पष्ट रूप से ये नहीं बताते हैं कि आख़िर राम विलास पासवान की मौत के मात्र नौ महीने के अंदर पार्टी में फूट कैसे पड़ गयी। जबकि इस बंटवारे की मूल वजह बाग़ी पक्ष की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं भी हैं।
दरअसल, राम विलास पासवान ने जिस तरह राष्ट्रीय स्तर पर एक चर्चित दलित नेता की छवि अख़्तियार की थी, उसे देखकर लगता था कि अब उनके दल में उन जैसा दूसरा नेता नहीं होगा। और जब तक उनके हाथ में शक्ति रही तब तक उनके परिवार में किसी की उनसे ऊंची आवाज़ में बहस करने की मजाल नहीं थी।
रामविलास जी भी पूरी मुस्तैदी से परिवार के सभी सदस्यों का ख्याल रखते थे। पशुपति नाथ पारस को विधायक से सांसद तक रामविलास जी ही पहुंचाए हैं। इसके चलते उन पर अक्सर एक आरोप लगता था कि एलजेपी एक परिवार की पार्टी है।
वेशक रामविलास जी इस बात से कभी हिचकिचाते नहीं थे। बल्कि वे खुलकर इसका बचाव करते थे। लेकिन उनके जाने के बाद से जिस तरह पार्टी की बागडोर और चुनावी फैसले लेने की ज़िम्मेदारी चिराग़ पासवान के कंधों पर आई, जिस तरह से फैसले लिए गए, उससे परिवार में असंतोष के भाव पनपने शुरू हुए हैं।
अब इन लोगों ने ये देखा कि ये (चिराग़ पासवान) जो चाहेंगे वह करेंगे। रामविलास जी के भाई रामचंद्र पासवान के बेटे प्रिंस राज की महत्वाकांक्षाएं चिराग़ पासवान जैसी ही हैं। ऐसे में पशुपति नाथ पारस से लेकर प्रिंस राज समेत अन्य लोगों, जो कि रामविलास जी के पीछे चलने के लिए राज़ी थे, को चिराग़ पासवान के पीछे चलना मंजूर नहीं है।”
बिहार के पिछले विधानसभा चुनाव के वक़्त चिराग़ पासवान सीएम नीतीश कुमार के प्रति अपने आक्रामक रुख के लिए चर्चा में थे। चिराग़ ने टीवी इंटरव्यू और चुनावी सभाओं में नीतीश कुमार को खुलकर निशाना बनाया जिसका असर नतीजों में भी दिखाई दिया।
चिराग़ और एलजेपी का नीतीश कुमार पर हमलावर रुख़ पशुपति नाथ पारस के राजनीतिक स्वभाव से मेल नहीं खाता था। बात बिलकुल स्पष्ट है कि एलजेपी ने जिस तरह पिछले चुनाव में नीतीश कुमार पर तार्किक ढंग से हमला बोला, वह पशुपति नाथ पारस के स्वभाव के विपरीत जाता है।
पारस और उनके दिवंगत भाई राम चंद्र पासवान ज़्यादा मुखर होकर विरोध करने वाली राजनीति में विश्वास नहीं रखते थे। वे लोग सुविधा वाली राजनीति में विश्वास रखते हैं। ऐसे में नीतीश कुमार के ख़िलाफ़ आक्रामकता के साथ मोर्चा खोलना परिवार और पार्टी को रास नहीं आया।
दिल्ली में पढ़ाई करके बॉलीवुड में भविष्य तलाशने के बाद राजनीति में हाथ आजमाने वाले चिराग़ पासवान को अभी भी राजनीतिक रूप से परिपक्व नहीं माना जाता है।
चिराग़ के व्यक्तित्व के साथ सबसे बड़ी कमी है कि वह राजनीतिक रूप से सक्रिय नहीं रहते हैं। वह अपने कार्यकर्ताओं से परिचित नहीं हैं और अपने क्षेत्र में बहुत कम ही आते हैं। यहां तक कि पटना तक उनका आना दुर्लभ है।
उन्होंने अपनी राजनीतिक अपरिपक्वता टिकट बंटवारे में प्रदर्शित की है। इसके साथ ही वह पार्टी के अनुभवी नेताओं को अनदेखा करके राजनीतिक फैसले लेते हैं। इस सबकी वजह से उनके ख़िलाफ़ विरोध का स्वर मुखर हो रहा था। लेकिन इसकी शुरुआत आठ अक्तूबर को रामविलास जी की मृत्यु के साथ हुई थी।
पशुपति नाथ पारस ने कहा है कि चुनाव से पहले जिस तरह एनडीए गठबंधन से अलग हुआ गया, वह 99 फ़ीसदी कार्यकर्ताओं की भावनाओं के ख़िलाफ़ था। लेकिन दिल्ली में हुए इस बंटवारे का ज़मीनी राजनीति पर कैसा असर पड़ेगा, यह देखना भी बड़ा दिलचस्प होगा।
फिलहाल, चिराग़ को उनके पिता की बनाई राजनीतिक साख का समर्थन मिलता रहेगा। क्योंकि राम विलास जी अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी चिराग़ को बनाकर गए थे। राजनीतिक क्षमता के लिहाज़ से भी देखा जाए तो पशुपति नाथ पारस और प्रिंस राज दोनों ही ज़मीन के नेता नहीं हैं।