“बिहार के 243 सदस्यीय विधानसभा में जहां एनडीए के पाले में 127 विधायकों का समर्थन है, वहीं महागठबंधन के पास 110 विधायकों का समर्थन है। यानी बहुमत के लिए जरूरी 122 सीटों से महज 12 सीटें कम। ऐसे में राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद के पटना आगमन को लेकर…
एक्सपर्ट मीडिया न्यूज डेस्क। बिहार में पदस्थ जदयू और भाजपा नेताओं की तीखी प्रतिक्रियाओं से तो यही लगता है कि लालू यादव के पटना लौटने की खबरों से कहीं न कहीं सत्तारूढ़ दल में अंदरुनी बेचैनी जरूर है।
वजह बहुमत के लिए जरूरी सीटों का कम अंतर तो है ही, साथ ही नेताओं का वह चरित्र भी, जो मौका मिलते ही पाला बदल की राजनीति करने से कतई परहेज नहीं करते।
मांझी और सहनी जैसे नेताओं ने कई बार पाला बदलने वाली अपनी फितरत पहले भी दिखाई है ऐसे में लालू यादव के लौटने भर से ही बिहार की सियासत में पाला बदल का खेल होने की संभावना जताई जा रही है।
कहा जा रहा है कि राजद की स्थापना के 25 वर्ष पूरे हो रहे हैं। राजद की स्थापना वर्ष 1997 में लालू प्रसाद यादव ने जनता दल से अलग होकर की थी।
राजद ने स्थापना दिवस को प्रदेश, जिला, प्रखंड और पंचायत स्तर पर मनाने का निर्णय लिया है। इस दिन लालू प्रसाद यादव पटना में राजद कार्यकर्ताओं को संबोधित भी कर सकते हैं।
हालांकि, सबकी नजर उनके संबोधन से अधिक उनके उस सियासी दांव-पेंच पर रहेगी जो बिहार की सियासत का सत्ता समीकरण उलट-पलट कर सकता है।
कुशल राजनीतिज्ञ के तौर पर लालू प्रसाद यादव को भी मालूम है कि बिहार एनडीए की सरकार में कमजोर कड़ी के तौर पर जीतन राम मांझी की हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा और मुकेश सहनी की विकासशील इंसान पार्टी भी शामिल है। इन दोनों की दलों के चार-चार विधायक हैं और इनके पाला बदलने की सूरत में बिहार में बड़ा फेरबदल हो सकता है।
यही वजह है कि लालू यादव ने इन दोनों ही नेताओं से हाल में ही फोन पर भी बात की थी जिससे बिहार की सियासत मे उथल-पुथल की अटकलें लगाई जाने लगी थी।
उधर लालू प्रसाद, फिलहाल अपनी बेटी मीसा भारती के दिल्ली आवास में स्वास्थ्य लाभ ले रहे हैं और वे दिल्ली से ही बिहार में सत्ता परिवर्तन का खेल खेलने की हवा उड़ रही है।
वहीं, सत्तारूढ़ खेमे की ओर से लालू के पटना आने को लेकर जिस तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आ रही हैं इससे सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि लालू कितना बड़ा खेल कर सकते हैं।
राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार लगभग तीन साल बाद लालू के पटना लौटने के बाद के सियासी हलचल पर इसलिए भी कयासबाजियों का दौर चल रहा है, क्योंकि सत्तारूढ़ एनडीए और महागठबंधन के बीच बहुमत का बारीक अंतर ही है।
243 सदस्यीय विधानसभा में जहां एनडीए के पाले में 127 विधायकों का समर्थन है, वहीं महागठबंधन के पास 110 विधायकों का सपोर्ट है। यानी बहुमत के लिए जरूरी 122 सीटों से महज 12 सीटें कम।
ऐसे में कयास है कि लालू के पटना लौटने के बाद कुछ न कुछ जरूर होगा क्योंकि उनकी नजर बिहार की सत्ता सियासत पर है।
विधानसभा में अगर महागठबंधन की राजद, कांग्रेस और वामपंथी दलों की क्रमश: 75+19+16= 110 सीटों में मांझी और सहनी की 4-4 सीटों को मिला दिया जाए तो यह आंकड़ा 118 तक पहुंच जाता है।
बहुमत के लिए 122 सीटों की पूरी करने की स्थिति में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी के 5 विधायकों का भी समर्थन महागठबंधन को मिल सकता है। ऐसे में इनकी कुल सीटों की संख्या 123 हो जाएगी, जो कि बहुमत से 1 अधिक होगी।
वहीं लालू यादव की नजर जदयू और भाजपा से जुड़े कई विधायकों पर भी है, जो इस बहुमत के बारीक अंतर को पाट सकते हैं। यह सीधे तौर पर समर्थन के साथ नहीं तो वोटिंग के समय उनकी अनुपस्थिति भी महागठबंधन के लिए सत्ता-सियासत का गणित सुलझा सकी है।
यही वजह है कि जदयू की ओर से बार-बार यह दावा किया जाता है कि राजद के कई विधायक भी उनके संपर्क में हैं और कभी वे पाला बदल सकते हैं।
जाहिर है जदयू के कद्दावर नेताओं की ऐसी प्रतिक्रियाएं उनकी भी बेचैनी को दर्शाती है क्योंकि सत्ता पक्ष हो या विरोधी पक्ष सभी यह तो मानते ही हैं कि राजनीति संभावनाओं का खेल है और यहां कोई भी सगा नहीं होता, बल्कि सत्ता और शक्ति का ही जोर चलता है।