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    Thursday, April 25, 2024
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      जानिए, कौन है साहित्य की सशक्त हस्ताक्षर बनकर उभरी नालंदा की अंशिता सिन्हा

      "हिंदी साहित्य में सिर्फ पुरूषों का आधिपत्य नहीं रहा है। महिलाएं भी लेखन में एक सशक्त हस्ताक्षर बनकर उभर रही है। अपना नाम साहित्य में दर्ज करा रही है। अक्सर गांव के लोगों को शहर के लोगों से कम आंका जाता है,लेकिन इस मिथक को तोड़ा है साहित्य के सपर्पित सिपहसालार उभरती साहित्यकार अंशिता सिन्हा ने......"

      एक्सपर्ट मीडिया न्यूज डेस्क / जयप्रकाश नवीन। साहित्य की दुनिया में नई जमीन तलाशने वाली जहीन व्यक्तिव की धनी अंशिता सिन्हा का नाम किसी परिचय की मुहताज नही है। जब भी साहित्य के शिलालेख पर उनकी साहित्य और लेखन के दस्तावेज की इमारत उकेर कर दर्ज की जाएगी अंशिता का नाम स्पष्ट सुंदर लिपि में अंकित मिलेगा।

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      ज्ञान की भूमि नालंदा के नगरनौसा प्रखंड के महमदपुर की गलियों से निकलकर झारखंड की राजधानी रांची में रह रही अंशिता को लेखन विरासत में मिली।उनकी मां मंजू रानी भी लेखन से जुड़ी थी। उनके पिता जनार्दन प्रसाद रेलवे में सीनियर सेक्शन इंजीनियर हैं।

      2004 में जब इनके पिता की पोस्टिंग रांची हुई तो सपरिवार रांची शिफ्ट हो गयें।तीन बहनों में सबसे बड़ी अंशिता को बचपन से ही पढ़ने-लिखने और साहित्य का महौल मिला। अंशिता बताती हैं,गांव में रहने के बाबजूद उनका परिवार बेहद ही शिक्षित था।जहां हमेशा शिक्षा को प्राथमिकता दी गई।

      अंशिता का जन्म हालांकि, पटना में हुआ था लेकिन लालन -पालन महमदपुर में ही हुआ।प्रांरभिक पढ़ाई प्राथमिक विधालय महमदपुर में हुई।जहां उन्होंने वहां सातवीं तक  पढ़ाई की।उसके बाद बिहार बोर्ड चंडी के बापू हाईस्कूल से पास की। इंटर की फरीक्षा उन्होंने नालंदा के महाबोधि कॉलेज से पास की।

      उसके बाद पटना कॉलेज से स्नातक उतीर्ण की। उसके बाद पिताजी के साथ वह रांची चली गई। वहां वह प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी करने लगी। लेकिन बचपन से कुछ और करने का कीड़ा उनमें था।

      चंचल और रचनात्मक प्रवृति के कारण प्रतियोगिता क्लास में मन नहीं रमा। चूंकि अंशिका को लेखन कहीं न कहीं विरासत में मिला था। अपने बचपन को याद करते हुए अंशिता बताती है,बचपन से ही जबसे होश संभाला, तब से ही तुकबंदी किया करती थी।

      बहुत ही छोटी उम्र से ही डायरी लिखने की लत लग गई थीं। जब इनकी हम उम्र सहेलियां स्कूल की किताबों में गणित और रसायन के सूत्र याद करती अंशिका विभिन्न प्रकार की पत्रिकाओं में रमी रहती थी।

      इनकी प्रतिभा को उनके एक शिक्षक रमाकांत ने पहचाना। उन्होंने सलाह दी कि पत्रकारिता कर लो, शायद तुम्हारी शौक को एक दिशा मिल जाएं। उनकी बात मानकर उन्होंने रांची कॉलेज के पत्रकारिता विभाग में एडमिशन ले ली।

      पत्रकारिता की पढ़ाई के दौरान भी वह उधेड़बुन में थी तभी एक वेकेंसी निकली एक पंजाबी चैनल “डीटीवी”के हिंदी स्लॉट के लिए जिसके लिए एक परीक्षा आयोजित की गई थीं। उन्होनें फार्म भर दिया। उनका चयन भी हो गया।

      उसके बाद उन्होने पीछे मुड़कर नहीं देखा। रांची दूरदर्शन‌ के ‘कृषि दर्शन’ के लिए स्क्रिप्ट लेखन भी की। साथ ही कई मीडिया हाउस में बतौर प्रोड्यूसर भी कार्य की। प्रिंट मीडिया के लिए भी लिखा।

      विभिन्न ‌अखबारों और पत्रिकाओं में नियमित रचनाएं भी छपने लगी। अब तक अंशिता की डेढ़ सौ के करीब कविताएं, संस्मरण प्रकाशित हो चुकी है।

      अंशिता बताती हैं कि उनके जीवन में सबसे बड़ा तूफान तब आया जब 2011 में उनकी मां का आकस्मिक निधन हो गया। मां उनके लिए दोस्त, उनकी आदर्श, सब कुछ थीं। उनके निधन से वह स्तब्ध रह गई। दो छोटी बहनों की जिम्मेदारी उन पर आ गई।

      वह संघर्ष का दौर था, जब घर-परिवार और छोटी बहनों की परवरिश और आॅफिस साथ-साथ संभालना पड़ा। अगले साल 2012 में उन्होने रमाकांत प्रसाद के साथ मिलकर एक मैगजीन “पब्लिक टूडे” का प्रकाशन की। एक साहित्यिक पत्रिका ‘अनवरत’ की सहायक संपादक भी रह चुकी हैं।

      हालांकि,वह राजनीति में भी कदम रखीं। भारतीय जनता युवा मोर्चा के सम्मानित पद ‘सोशल मीडिया सह प्रभारी’की जिम्मेदारी भी मिली। लेकिन वह राजनीति में ज्यादा सालों तक सक्रिय नहीं रह पाई, क्योंकि कलाकार मन को राजनीति के दांव पेंच कहां लुभाते हैं।

      वर्ष 2013 में अंशिता को झारखंड मीडिया फेलोशिप के तहत पचास हजार रूपये का अवार्ड और प्रशस्ति पत्र भी मिला। उन्हें यह अवार्ड “किलकारी” के नाम से बाल श्रमिक पर आधारित डॉक्यूमेंट्री के लिए दिया गया था। जिसका निर्माण उन्होंने किया था। वाकई यह क्षण उनके लिए गौरव की थी।

      अंशिता सिन्हा का विवाह 11दिसम्बर, 2013को मंतोष से हुआ, जो पेशे से इंटीनियर डिजाइनर हैं, लेकिन दिल से वह भी एक कलाकार है। उनका पूरा परिवार कलाकारों से भरा है। पति मंतोष बेहतरीन तबला वादक हैं तो छोटी बहनें भी नृत्य,गिटार और की बोर्ड बजाने की शौकीन। घर में साहित्य और संगीत का एक खुशनुमा महौल हमेशा बना रहता है।

      कहा गया है कि कोई भी रचना ‘लाईफ ब्लड ऑफ ए राइटर (लेखक के जीवन रूधिर) होती है। लेखक अथवा कवि अपने रूधिर को एकत्र कर अपने को निचोड़ कर किसी कृति या रचना का प्रणेता बनता है। ‘आत्म प्रेक्षेपण’ या ‘आत्म प्रतिष्ठान’ होता है।

      अंशिता सिन्हा की कृति “बिखरे अहसासों के रंग” काव्य संग्रह भी उनमें से एक है।वह अपनी पहली किताब के बारे में कहती हैं,”अपनी रचनाओं को किताब की शक्ल में तब्दील होता देख वही खुशी होती है, जो एक मां को पहली बार औलाद को देखकर होती है‌।”

      उनका काव्य संग्रह “बिखरे अहसासों के रंग” महज एक किताब नहीं बल्कि जिंदगी के उतार-चढ़ाव ,उसके विविध रंगों और रूपों को जिन्हें वह बहुत ही करीब से महसूस की हैं,उन सभी भावनाओं की अभिव्यक्ति है। उनकी कविताओं में जिंदगी के उन तमाम लम्हों की तस्वीर है, जिसे उन्होने जीया, खुशी से मुस्कुरायी, तो कभी दर्द से कुम्हलाई ,कभी खुद के संघर्ष को तो कभी दूसरे की पीड़ा को महसूस कर ,कभी कुदरत के नजारों को निहारते हुए अंतस में भावनाएं ही शब्द का लिबास पहन लेती है।

      अंशिता बताती हैं, “मेरी कविताएं, मेरे हर अहसास को शब्दों के माध्यम से अपने अंदर समेट लेती है।ये साक्षी हैं खुशी, गम, आंसू, गर्व, पीड़ा के साथ-साथ जीवन के हर उस शै के जिसे हर इंसान कभी न कभी महसूस करता है।”

      शिवालिक प्रकाशन,दिल्ली द्वारा प्रकाशित ‘बिखरे अहसासों के रंग’ काव्य संग्रह को अंशिता ने अपनी मां को समर्पित किया है।

      वह बताती हैं कि इस पुस्तक के प्रकाशन में उनके पिता जनार्दन प्रसाद का आशीर्वाद के साथ सबसे बड़ा श्रेय पति मंतोष का है। अगर वह प्रोत्साहित नहीं करते तो आज भी मेरी सारी कविताएं लैपटाप में गुमनामी में पड़ी रहती। उन्होंने मेरे हर सपने को अपनाया है। आज जो भी कर रही हूं, उन्हीं की बदौलत कर पा रही हूं। इसके अलावा उनका  साझा काव्य संग्रह “एक स्वर मेरा भी” प्रकाशित हो चुका है।

      कहतें हैं कि जिस तरह से अंशिता के जीवन पर उनकी मां के लेखन का प्रभाव पड़ा, उसी तरह इनके 6 साल के बेटे अध्याय अर्श भी उनके नक्शे कदम पर चल रहा है। वह भी इस नन्हीं उम्र में लेखक और लेखन की भाषा को समझता है। इस छोटी उम्र में ही उसके अंदर लिखने की प्रतिभा कहीं न कहीं भाषा को समझता है। अब तक वह कई कहानी लिख चुका है।

      अंशिता दिनों एक कहानी संग्रह और एक उपन्यास लिख रही हैं। साथ ही वह झारखंड की कुछ विलुप्त हो रही चित्रकारी पर भी रिसर्च कर रही हैं। जिसपर एक किताब लिखने की भी योजना है। उनकों रंगों और ब्रशों से खेलना प्रिय शगल है‌। अपने सहयोगी कलाकार प्रीतम कुमार के साथ मिलकर “कालखंड” नाम से आर्ट ग्रुप की भी स्थापना की है। जिसके तहत वह पेंटिग और हैंडीक्राफ्ट का प्रशिक्षण देती हैं। वह आर्डर पर पेंटिंग बनाकर देश के कई राज्यों में भेजती हैं।

      अंशिता कहती हैं,मेरे लिये तो लेखनी,किताबें, रंग और ब्रश ही मेरी जिंदगी है। इन्ही में मन को सुकून मिलता है..किताबों के बिना तो मैं अपनी जिंदगी की कल्पना नहीं कर सकती। किताबों के बिना वह घुटन महसूस करती हैं।

      अंशिता अपने खानदान में किताबें पढ़ने के बदनाम हैं। शौक इस कदर है कि घर में ही लाइब्रेरी बना रखी हैं। जहां उनका अधिकांश वक्त गुजरता है।

      अंशिता कहती हैं, वैसे तो लेखन कार्य मैं खुद के लिए खुद की खुशी के लिए करती हूं, पर अगर इसके द्वारा कुछ समाज के लिए बेहतर कर पाऊं, लिखकर एक नई दिशा दे सकूं तो मेरा लेखन सार्थक हो जाएगा

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