रांची (मुकेश भारतीय)। कथित द रांची प्रेस क्लब की तदर्थ सदस्यता अभियान कमिटि के मठाधीशों ने जिस तरह से गुटबाजी दिखाते हुये ‘तुम उसको तो हम इसको’ की तर्ज पर खुद की नियमावली की धज्जियां उड़ाते हुये भारी तादात में योग्य पत्रकारों को अदद सदस्यता तक नहीं दी, दूसरी तरफ फर्जी पत्रकारों को खूब संख्या में तरजीह दिया, यह सोच कर कि कहीं वे चुनाव में बिछाई गई बिसात पर कोई उटल-फेर न कर दें, ठीक उसी तर्ज पर प्रेस क्लब का पहला आम चुनाव चुनाव लड़े जा रहे हैं।
गुटबाजी का आलम यह है कि कल तक जो लंगोटिया यार बने थे, चुनाव में जानी दुश्मन दिख रहे हैं और कल तक जो एक दूसरे को देखते ही गाली बुदबुदाते काट खाने को उतारु प्रतीत होते थे, इस चुनाव में गलबहियां डाले अभी रात अंधेरे अपनी नींद उड़ाये हैं।
कल तक खुद की मीडिया हाउस के शोषण, दमण, उत्पीड़न भरे दर्द बयां करने वाले नये-पुराने पत्रकार भी ऐसे कूद-फान रहे हैं कि मानो उनकी मीडिया हाउस ने मजीठिया बेज बोर्ड की सिफारिशें लागू कर दी हों। उनकी सेवा को स्थाई कर दिया हो।
सबसे शर्मनाक स्थिति यह है प्रेस क्लब रांची के महत्वपूर्ण पदों पर कब्जा करने की नियत से यहां के छोटे-बड़े विभिन्न मीडिया हाउस के पदासीन लोग भी इसी मंशा में हैं कि इस प्रेस क्लब भवन उनके संस्थान का दफ्तर बन जाये, क्लब के निर्वाचित पदाधिकारी उनके इशारों पर नाचे और सत्ता में शामिल दल तथा अन्य राजनीतिक दलों के नेताओं का समूह उनके आगे-पीछे करे।
इसी का नतीजा है कि अभी चुनाव में कई घंटे शेष हैं और चुनाव कराने वाले तथाकथित निर्वाची पदाधिकारी व उनकी टीम पर चुनाव आचार संहिता के उल्लघंन पर कोई नोटिश नहीं लेने के आरोप लगे हैं।
एक बड़े पद के प्रत्याशी पर आरोप है कि उन्होंने चुनाव आचार सहिंता के विरुद्ध प्रचार कर रहे हैं। इसकी शिकायत निर्वाची पदाधिकारी से करने पर उन्होंने कोई नोटिश नहीं ली। उल्टे आचार संहिता में ही फौरिक बदलाव कर डाले।
इस चुनाव से एक बात और भी साफ हो रहा है कि बात जब चुनाव प्रक्रिया की हो, तब पत्रकारों की मानसिकता भी नेताओं से कोई ईतर नहीं होता। सच पुछिये तो नेता लोग इनसे बेहतर हैं कि कम से कम उनका कोई तय एजेंडा तो होता है।
यहां के चुनावी पत्रकार का आलम यह है कि उसका कोई ठोस एजेंडा ही नहीं है कि वह चुनाव लड़ क्यों रहा हैं? उसकी सोच क्या हैं? उद्देश्य क्या है? प्रेस क्लब की कुर्सी पर बैठ कर या उसकी सक्रिय टीम में शामिल होकर करेगें क्या?
ऐसे में जाहिर है कि जब प्रत्याशियों के पास दृष्टिकोण का अभाव हो, सोच और उद्देश्य स्पष्ट न हो तथा एजेंडे का पता न हो उससे कोई आम पत्रकार क्या उम्मीद कर सकता है।
सबसे बड़ी बात कि जो पत्रकार लोग चुनाव मैदान में उतरे हैं, उनकी पूरी जानकारी में चुन-चुन कर खांटी पत्रकारीय सोच और सरोकार रखने वालों को सदस्यता से बंचित रखते हुये भारी तादात में फर्जी पत्रकारों को चुनाव के ऐन पूर्व क्लब का सदस्य बना दिया गया। इसे लेकर किसी ने कोई मुखालफत नहीं की और न ही भविष्य में उसकी फिक्र भरी चिंता ही प्रकट की। और तो और कई चुनावी पत्रकार तो ऐसे उठ खड़े हुये हैं, जैसे पूरी सरकार और व्यवस्था उनके कब्जे में होगी। वो जो चाहेगें, वैसा ही होगा।
इस चुनाव की एक बड़ी खासियत यह कही जायेगी कि एयरकंडीशन छाप पत्रकार भी चुनाव मैदान में उतरने के बाद रांची जिले के प्रखंड-अंचल-थाना स्तर पर जुड़े रिपोर्टरों, जो मुसीबत में संवाद सूत्र से अधिक नहीं कहलाते, उनके दर चिरौरी करते साफ दिख रहे हैं। क्योंकि वे पत्रकार से फिलहाल अधिक बड़े वोटर की भूमिका में हैं।
आज देर शाम एक राष्ट्रीय आखबार के प्रखंडस्तरीय संवाद सूत्र ने बताया कि आज उसने साफ देखा कि मीडिया और उससे जुड़े संगठन के बड़े-बड़े मठाधीश भी वोट के लिये नेताओं से भी अधिक गिरे-गुजरे बन जाते हैं।
जो पत्रकार अखबार के दफ्तर में कदम रखते ही या फिर कहीं औपचारिक भेंट मुलाकात के दौरान अछूत समझते रहे, वे वोट के लिये नंगा होने को भी तैयार दिखे। हालांकि यह दीगर बात है कि कल वोटिंग के बाद फिर से वही अछूत से अधिक नहीं होगा। या फिर अखबार में ही न होगा। और जब वह अखबार में ही नहीं होगा तो उसे पूछेगा कौन ?
बहरहाल, प्रेस क्लब रांची का चुनाव पत्रकारों का चुनाव न होकर चैंबर ऑफ कामर्स की तरह हो गया हैं। जैसे चैंबर के चुनाव में टीमें घोषित होती है, उसी तर्ज पर यहां भी मठाधीशों ने कई टीमें पैदा कर दी गई है। इन टीमों को जीताने-हराने के लिए उन मीडिया हाउस के दिग्गजों ने भी हामी भर दी है, जिनका इस चुनाव से कोई सीधा वास्ता नहीं होनी चाहिये थी।