“मेरे जीने मरने में तुम्हारा नाम आएगा। मैं सांसे रोक लूं, फिर भी यही इल्जाम आएगा। हर धड़कन में जब तुम हो तो फिर अपराध क्या मेरा… कोई पत्थर की मूरत है। किसी पत्थर में मूरत है। लो हमने देख ली दुनिया, जो इतनी खुबसूरत है। जमाना अपनी समझे पर, मुझे अपनी खबर ये है। तुझे मेरी जरुरत है, मुझे तेरी जरुरत है……..”
-: मुकेश भारतीय / एक्सपर्ट मीडिया न्यूज नेटवर्क :-
वेशक वर्तमान दौर के बड़े लोकप्रिय कवि कुमार विश्वास की उक्त महती पक्तियां नालंदा जिला की पावन धरती पर अगर किसी शख्स पर सटीक बैठती है तो वे हैं जिला बाल किशोर न्याय परिषद के प्रधान दंडाधिकारी एवं अपर मुख्य न्यायिक दण्डाधिकारी मानवेन्द्र मिश्रा।
आज फिर बिहार शरीफ के कमरुद्दीन गंज मोहल्ला में संचालित नालंदा अनाथ गृह नालंदा में उनका ठीक वैसा ही स्वरुप सामने आया, जिस संजीदगी के लिए वे शुमार रहे हैं।
अमुमन नव वर्ष की पहली तारीख को लोग खुद के लिए मंदिर, मस्जिद, गिराजाघर, गुरुद्वारा में पूरे साल की प्रसन्नता और सम्पन्नता की अराधना-दुआ करते हैं या फिर अपने परिजनों-खास मित्रों के साथ किसी सुंदर स्थल पर जाकर जश्न करते हैं। ताकि उनका पूरा साल यूं मस्ती से कट जाए।
वहीं माननीय जज मानवेन्द्र मिश्रा गैर न्यायायिक कार्य समय में भी अपने अहम खुशियां उन बच्चों के बीच बांटे, जो सामाजिक तौर एक मुस्कान के लिए तरशते हैं। शायद उन्हें दूसरे की खुशी और बच्चों की मुस्कान में ही वह सब कुछ झलकता है, जिसका मूल ईश्वर के स्वरुप को गढ़ता है।
आज जज मिश्रा ने अपने नए साल की शुरुआत अनाथ गृह के मासूम बच्चों के साथ की। उन्होंने सभी बच्चों को अपने हाथों बड़े दुलार से मिठाईयां आदि खिलाई।
उनके बीच चॉकलेट, बिस्किट के अलावे अन्य जरुरत के समान भी बांटे। उन्हें बाहर की मनोरम दुनिया भी दिखाए।
उस समय बच्चों के चेहरे पर आयी मुस्कान को शब्दों में उकेरना बड़ा मुश्किल है। उसे सिर्फ अहसास किया जा सकता है। ऐसे भी ईश्वर दिखता नहीं, सिर्फ महसूस ही किया जा सकता है। शायद इसी खोज में वहां जज मिश्रा फिर गए और बच्चों की मुस्कान पर्याय उनके चेहरे की खुशियां यही प्रकट करती नजर आई।
इसके गवाह जिला बाल संरक्षण इकाई के चिल्ड्रेन प्रोटेक्शन ऑफिसर ब्रजेश कुमार, केशव जी समेत कई अन्य लोग भी बने।
हमारी नजर में जीवन कोई एक साल या मात्र वर्ष-2020 में निहित नहीं है। जीवन काल अनंत है। मूल शुरुआत उसी दिन हो जाती है जब ममतामयी मां के गर्भ से आंचल में आ उतरते हैं और उन्हीं संस्कारों में हम सबका हर पहलु बंध जाता है। जो गिरते मानवीय-सामाजिक मूल्यों के बीच जज मिश्रा सरीखे प्रकाशपूंज बनकर स्फूटित होतें है। एक आस जगाती है।
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